

श्री योगिनी रोमाम्बिका
न जातिर्न कुलं न वयो न रूपं,
भक्तिर्विशुद्धा यदि साधके स्यात्।
ततोऽस्य पात्रं मम विद्यया हि,
प्रवेश्यते मन्त्ररहस्यगर्भम्॥
(ना जाति, ना कुल, ना आयु, ना रूप — यदि साधक की भक्ति शुद्ध हो,
तो वह मेरी विद्या का पात्र बनता है और मन्त्ररहस्य उसके भीतर प्रवाहित होता है।)
हमारे पीठम् में कोई जाति, वर्ण, लिंग या समुदाय भेद नहीं है।
यह स्थान उस मातृचेतना का केंद्र है, जहाँ केवल एक ही पहचान होती है — एक साधक का माँ के चरणों में समर्पण। जो भी साधक सत्य के पथ पर निष्ठा, माँ के प्रति श्रद्धा, और ज्ञान के प्रति पवित्र आकांक्षा लेकर आता है, वह हमारे श्रीविद्याङ्नि पीठम् में पूर्ण हृदय से स्वागतयोग्य है।
मेरी यह आंतरिक प्रतिज्ञा है कि जो साधक वास्तव में योग्य है, उस तक ज्ञान अवश्य पहुँचेगा। मेरे लिए ज्ञान कोई निजी संपत्ति नहीं, वह तो ब्रह्मस्वरूपहै; और माँ केवल एक देवी नहीं, बल्कि परात्परा सत्ता हैं — जो किसी भी सद्भावयुक्त आत्मा को अपना बना लेती हैं।
यह परंपरा गुप्त है, पर संकुचित नहीं। यह ज्ञान दीक्षा में सीमित नहीं, पर विकृति में नहीं बहता।
हमारा मार्ग केवल विद्या का नहीं, विद्या के साथ करुणा का है;
केवल साधना का नहीं, साधना के साथ सेवा का है;
केवल शक्ति का नहीं, शक्ति के साथ समर्पण का है।
सर्वेऽपि यत्र मातृभावेन एकतां गच्छन्ति,
तत्रैव विद्यायाः पूर्णसिद्धिः सुलभा भवति॥
(जहाँ सभी मातृभाव से एक होकर आते हैं, वहीं विद्या की पूर्ण सिद्धि सहज रूप में प्राप्त होती है।)
श्रीविद्याङ्नि पीठम् का प्रत्येक द्वार उस साधक के लिए खुला है,
जिसने माँ को जीवन का लक्ष्य और ज्ञान को आत्मा का प्रकाश माना है।
हमारी साधना, हमारी सेवा और हमारा समर्पण — सब उसी के लिए है जो देवी को स्वयं में खोजना चाहता है।
.......श्री योगिनी रोमाम्बिका
श्रीविद्याज्ञी पीठम् वह परम स्थान है जहाँ साधना केवल एक क्रिया नहीं, बल्कि आत्मा की गहराइयों में उतरने की यात्रा है। यह वह पीठ है जहाँ हर जिज्ञासु साधक, अपने भीतर की देवी को जाग्रत करने का साहस करता है।
साधना का मार्ग सरल नहीं होता, परंतु यही मार्ग आत्मज्ञान, शुद्धि और शक्ति का द्वार खोलता है। योगिनी रोमांबिका कहती हैं, "साधना वह दीप है जो भीतर के अंधकार को जलाकर आत्मप्रकाश की ओर ले जाता है।"
यहाँ हर मंत्र केवल ध्वनि नहीं, वह चेतना है जो सृष्टि के तंतु से बंधा है। हर यंत्र, हर विधि, हर आहुतियाँ, साधक के भीतर लुप्त देवी चेतना को उजागर करती हैं।
"जब साधना समर्पण बन जाती है, तब हर श्वास मंत्रमय हो जाती है। साधना तब केवल बाह्य अनुष्ठान नहीं रह जाती, वह साधक का स्वभाव बन जाती है।"
श्रीविद्याज्ञी पीठम् का हर क्षण, हर ऊर्जा, उस दिव्य ज्ञान को समर्पित है जिसे 'ज्ञी' कहा गया है — जानने की शक्ति, अनुभव की तीव्रता, और आत्मा से आत्मा की मिलन की मौन अनुभूति।
"मंत्र साधना कोई प्रदर्शन नहीं, वह आत्मा का गीत है जो केवल मौन में सुना जाता है।"
जो भी इस पीठ पर आता है, वह एक व्रत लेता है — स्वयं से मिलने का, देवी को जानने का, और उस ज्वाला को पुनः प्रज्वलित करने का जो सृष्टि के आरंभ से ही भीतर निहित है।
"श्रीविद्याज्ञी पीठम् वह ज्योति है जो बाहरी तमस नहीं, भीतर के संशयों को मिटाती है।"
— श्री योगिनी रोमाम्बिका
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